मॉस्को, 8 अक्टूबर 2025: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अफगानिस्तान में सैन्य पुनर्वास की महत्वाकांक्षी योजना को झटका लगाते हुए भारत ने मंगलवार को रूस, चीन, ईरान और मध्य एशियाई देशों के साथ एकजुट होकर साफ संदेश दिया कि अफगान मिट्टी अब किसी विदेशी ताकत का सैन्य अड्डा नहीं बनेगी। मॉस्को फॉर्मेट की सातवीं बैठक में जारी संयुक्त बयान ने अफगानिस्तान या उसके पड़ोसी देशों में किसी भी विदेशी सैन्य ढांचे की तैनाती को “अस्वीकार्य” करार दिया। यह कदम ट्रंप की “अमेरिका फर्स्ट” नीति के तहत बगराम एयरबेस को तालिबान से वापस लेने की मांग के सीधे खिलाफ है, जिसे भारतीय कूटनीतिक हलकों में साम्राज्यवादी विस्तार की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।
ट्रंप की योजना: बगराम एयरबेस पर फिर कब्जे की मंशा
ट्रंप प्रशासन ने सितंबर 2025 में तालिबान सरकार से रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बगराम एयरबेस को अमेरिका को सौंपने की मांग की थी। यह एयरबेस अफगानिस्तान के पूर्व में स्थित है और 2021 में अमेरिकी सेना के आकस्मिक विदाई के बाद तालिबान के हाथों में चला गया था। ट्रंप ने इसे “आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी हितों” के लिए जरूरी बताते हुए एक विशेष दूत नियुक्त किया, जो तालिबान पर दबाव बनाने का काम कर रहा है।
व्हाइट हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने हाल ही में कहा, “बगराम अमेरिकी सुरक्षा की कुंजी है। तालिबान को यह समझना होगा कि सहयोग न करने पर आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध झेलने पड़ेंगे।” लेकिन यह मांग क्षेत्रीय शक्तियों के लिए खतरे की घंटी है। रूस और चीन इसे मध्य एशिया में अमेरिकी सैन्य वर्चस्व की वापसी मानते हैं, जबकि भारत इसे पाकिस्तान के साथ अमेरिकी संबंधों को मजबूत करने की कवायद के रूप में देख रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रंप का यह दांव न केवल अफगानिस्तान को अस्थिर करेगा, बल्कि भारत की क्षेत्रीय सुरक्षा हितों को भी चुनौती देगा, खासकर जब अफगान मिट्टी से लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे पाक-समर्थित आतंकी संगठन सक्रिय हैं।
मॉस्को फॉर्मेट: भारत का सधा हुआ डिप्लोमेटिक जवाब
मॉस्को में हुई इस बैठक में भारत, रूस, चीन, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान समेत 10 देशों ने हिस्सा लिया। भारत का प्रतिनिधित्व रूस में भारतीय राजदूत विनय कुमार ने किया। संयुक्त बयान में स्पष्ट रूप से कहा गया, “अफगानिस्तान और उसके पड़ोसी देशों में विदेशी सैन्य बुनियादी ढांचे की तैनाती के प्रयास क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के हितों की सेवा नहीं करते।” यह बयान ट्रंप की योजना पर सीधी चोट है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “भारत का रुख साफ है—अफगानिस्तान एक संप्रभु राष्ट्र है, जो शांति और विकास का केंद्र बने, न कि महाशक्तियों के बीच जंग का अड्डा।” बैठक में आतंकवाद, ड्रग तस्करी और संगठित अपराध के खिलाफ द्विपक्षीय व बहुपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर जोर दिया गया। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने वादा किया कि रूस अफगानिस्तान को आतंकवाद उन्मूलन में हरसंभव मदद देगा।
भारत ने इस मंच पर अफगानिस्तान में मानवीय सहायता और विकास परियोजनाओं को बढ़ावा देने का संकल्प दोहराया। पिछले दशक में भारत ने अफगानिस्तान में 3 अरब डॉलर से अधिक की सहायता दी है, जिसमें संसद भवन, सलमा बांध और अस्पताल शामिल हैं। लेकिन सैन्य हस्तक्षेप से भारत हमेशा दूर रहा है, क्योंकि यह पाकिस्तान को अफगानिस्तान में गहराई वाली रणनीति अपनाने का मौका दे सकता है।
पृष्ठभूमि: ट्रंप-भारत तनाव और व्यापारिक झड़प
यह डिप्लोमेटिक दांव ट्रंप के साथ भारत के बढ़ते तनाव के बीच आया है। ट्रंप ने भारत पर 50% टैरिफ लगाने की धमकी दी है, जिसे “अमेरिका फर्स्ट” नीति का हिस्सा बताया जा रहा है। अगस्त 2025 में ट्रंप ने कहा था कि भारत रूस से सस्ता तेल खरीदकर अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचा रहा है। इसके जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सितंबर में एससीओ शिखर सम्मेलन में बहुपक्षीयता पर जोर दिया।
विश्लेषकों का मानना है कि अफगानिस्तान मुद्दा ट्रंप की व्यापारिक चालबाजी का विस्तार है। “ट्रंप अफगानिस्तान में बेस स्थापित कर मध्य एशिया के ऊर्जा संसाधनों पर कब्जा करना चाहते हैं, जो भारत-रूस-चीन गठबंधन के लिए खतरा है,” एक वरिष्ठ कूटनीतिज्ञ ने कहा। X (पूर्व ट्विटर) पर भी यह चर्चा तेज है, जहां यूजर्स ट्रंप की नीतियों को “साम्राज्यवादी” बता रहे हैं। एक पोस्ट में लिखा गया, “ट्रंप का अफगानिस्तान दांव भारत को निशाना बनाने का बहाना है।”
क्षेत्रीय प्रभाव: पाकिस्तान की दुविधा और चीन-रूस का साथ
पाकिस्तान, जो बैठक में शामिल था, इस बयान से असहज है। ट्रंप ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख आसिम मुनीर से जून 2025 में मुलाकात की थी, जहां अफगानिस्तान पर चर्चा हुई। लेकिन मॉस्को फॉर्मेट में पाकिस्तान को भारत-चीन-रूस के साथ खड़ा होना पड़ा। ईरान ने भी अमेरिकी योजना का विरोध किया, क्योंकि यह उसके पूर्वी सीमा पर खतरा है।
चीन ने अफगानिस्तान में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) परियोजनाओं को सुरक्षित रखने के लिए इस बयान का समर्थन किया। रूस ने तालिबान को मान्यता देने की प्रक्रिया तेज करने का संकेत दिया, लेकिन सशर्त। विशेषज्ञों का कहना है कि यह गठबंधन ट्रंप की योजना को विफल कर सकता है, लेकिन लंबे समय में अफगानिस्तान में शांति के लिए तालिबान को मुख्यधारा में लाना जरूरी होगा।
आगे की राह: भारत की रणनीति
भारत अब संयुक्त राष्ट्र और क्वाड जैसे मंचों पर अफगान मुद्दे को उठाने की तैयारी कर रहा है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हाल ही में कहा, “अफगानिस्तान में स्थिरता भारत की प्राथमिकता है, लेकिन बाहरी हस्तक्षेप नहीं।” ट्रंप के साथ द्विपक्षीय व्यापार वार्ता जारी है, लेकिन अफगानिस्तान पर भारत का यह दांव वैश्विक मंच पर उसकी कूटनीतिक ताकत दिखाता है।
क्या यह ट्रंप को पीछे हटने पर मजबूर करेगा? या अमेरिका नई चाल चलेगा? आने वाले हफ्तों में तालिबान का रिएक्शन और ट्रंप का जवाब तय करेगा कि अफगानिस्तान फिर से युद्ध का मैदान बनेगा या शांति का। भारत का संदेश साफ है—क्षेत्रीय शक्तियां खुद फैसला लेंगी, बाहरी ताकतें नहीं।
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