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पटाखों की धमाकेदार यात्रा: प्राचीन चीन से आधुनिक भारत तक का इतिहास

नई दिल्ली, 20 अक्टूबर 2025 – दिवाली का त्योहार नजदीक आते ही पटाखों की गूंज हर तरफ सुनाई देने लगती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये पटाखे, जो आज भारत में खुशी और उत्सव का प्रतीक बन चुके हैं, सबसे पहले कहां फोड़े जाते थे? इनका इतिहास क्या है और ये भारत तक कैसे पहुंचे? आइए, इसकी एक विस्तृत कहानी पर नजर डालते हैं, जो सदियों पुरानी परंपराओं, आविष्कारों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से बुनी गई है।

चीन में जन्म: पटाखों का मूल उद्गम

पटाखों की कहानी चीन से शुरू होती है, जहां इन्हें सबसे पहले फोड़ा जाता था। इतिहासकारों के अनुसार, पटाखे लगभग 2,000 साल पहले, दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में, प्राचीन लियुयांग, चीन में विकसित किए गए थे। चीनी किंवदंती के मुताबिक, नए साल की पूर्व संध्या पर ग्रामीण बांस जलाते थे, जिससे विस्फोटक ध्वनि निकलती थी और एक राक्षस को डराकर भगाती थी। यह परंपरा पटाखों की शुरुआत बनी।

लगभग 800 ई. में, चीनी कीमियागरों ने साल्टपीटर, सल्फर और चारकोल को मिलाकर कच्चा बारूद बनाया। इसे बांस की नलियों में भरकर आग में फेंका जाता था, जो पहले पटाखों का रूप थे। बाद में, बांस की जगह कागज की नलियां ली गईं और टिशू पेपर से बनी फ्यूज जोड़ी गई। चीन में पटाखों का उपयोग उत्सवों में किया जाता था, जैसे नए साल पर बुरी आत्माओं को भगाने के लिए। दसवीं शताब्दी तक, इन्हें तीरों से जोड़कर दुश्मनों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाने लगा, और अगले 200 वर्षों में रॉकेट विकसित हुए, जो आज भी आधुनिक आतिशबाजियों में इस्तेमाल होते हैं।

中国 के प्राचीन काल में पटाखों का आविष्कार दर्शाती एक कल्पनाशील छवि

चीनी पटाखों को ‘बाओझू’ कहा जाता था, जिसका अर्थ ‘विस्फोटक बांस’ है। ये न केवल मनोरंजन के लिए थे, बल्कि सैन्य उपयोग में भी आए। बारूद को ‘शैतान का आसवन’ कहा जाता था, क्योंकि इसकी चमक और धमाका डरावना था।

विकास और वैश्विक प्रसार: सिल्क रोड से यूरोप तक

पटाखों का विकास चीन में ही हुआ, लेकिन 13वीं शताब्दी तक बारूद यूरोप पहुंच गया। यहां से यह अमेरिका तक गया, जहां 1777 में अमेरिकी स्वतंत्रता की पहली वर्षगांठ पर आतिशबाजियां की गईं। 1830 के दशक तक, पटाखे केवल नारंगी चमक देते थे, लेकिन इटालियंस ने धातुओं और अन्य सामग्रियों को जोड़कर रंग, चमक और आकार जोड़े। आज पटाखों में पांच मुख्य सामग्रियां होती हैं: रंग पैदा करने वाले यौगिक, बारूद (ईंधन), ऑक्सीडाइजर, क्लोरीन डोनर और बाइंडर।

पटाखों का प्रसार व्यापार और सैन्य संपर्कों से हुआ। अरब मध्यस्थों के माध्यम से यह तकनीक भारत और यूरोप पहुंची। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भारत में साल्टपीटर (अग्निचूर्ण) का ज्ञान 300 ईसा पूर्व से था, जैसा कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेख है, लेकिन पटाखों का उपयोग चीन से सीखा गया। भारत में पटाखों की उत्पत्ति का दावा करने वाली कुछ थ्योरी हैं, लेकिन इन्हें खारिज किया गया है, क्योंकि अधिकांश प्रमाण चीन की ओर इशारा करते हैं।

मुगल काल में आतिशबाजियों को दर्शाती एक ऐतिहासिक पेंटिंग
मुगल काल में आतिशबाजियों को दर्शाती एक ऐतिहासिक पेंटिंग

भारत पहुंचने की कहानी: व्यापार और सैन्य मार्ग से

पटाखे भारत 13वीं शताब्दी में व्यापार के साथ पहुंचे, संभवतः मिंग राजवंश के माध्यम से दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्वी भारत और अरब दुनिया तक। दिल्ली सल्तनत ने पूर्वी भारतीय जनजातियों से बारूद अपनाया, शुरू में युद्ध के लिए, लेकिन पटाखों का ज्ञान चीन से आया।

सबसे पुराना प्रमाण 1443 में फारसी राजदूत अब्दुर रज्जाक का है, जिन्होंने विजयनगर साम्राज्य के महानवमी उत्सव में आतिशबाजियों का वर्णन किया। इतालवी यात्री लुडोविको दी वर्थेमा ने भी विजयनगर में हाथियों को नियंत्रित करने के लिए पटाखों का उल्लेख किया। 1518 में पुर्तगाली यात्री डुआर्ट बारबोसा ने गुजरात में एक ब्राह्मण विवाह में पटाखों का जिक्र किया, जो बताता है कि तब तक वे आम हो चुके थे।

मुगल काल में पटाखे भव्य उत्सवों का हिस्सा बने। 1633 में शाहजहां के बेटे दारा शिकोह की शादी में आतिशबाजियां की गईं। 17वीं शताब्दी में बीजापुर के आदिल शाह की शादी में 80,000 रुपये पटाखों पर खर्च हुए। मुगल, पहाड़ी और राजस्थानी पेंटिंग्स में पटाखों को दिखाया गया है, जैसे ‘कृष्ण और राधा आतिशबाजियां देखते हुए’।

भारतीय संस्कृति में एकीकरण: राजसी मनोरंजन से आम उत्सव तक

मध्यकालीन भारत में पटाखे राजसी मनोरंजन थे, त्योहारों, विवाहों और विशेष अवसरों पर इस्तेमाल होते थे। वे केवल अमीरों के लिए थे। 16वीं शताब्दी के मराठी कवि एकनाथ की ‘रुक्मिणी स्वयंवर’ में रॉकेट और फूलझड़ी का वर्णन है। 18वीं शताब्दी में मराठा इतिहास में कोटा के दिवाली में ‘लंका दहन’ का जिक्र है, जहां रावण की लंका को पटाखों से जलाया जाता था।

पटाखे हिंदू त्योहारों के अलावा मुस्लिम उत्सव शब-ए-बारात में भी इस्तेमाल होते थे। ब्रिटिश काल में मांग बढ़ी, और 19वीं शताब्दी में कोलकाता में पहली फैक्टरी बनी। स्वतंत्रता के बाद, तमिलनाडु का शिवकाशी पटाखों का केंद्र बना, जहां सस्ते पटाखे बनाए जाते हैं।

आधुनिक समय: लोकप्रियता और चुनौतियां

आज पटाखे दिवाली का अटूट हिस्सा हैं, लेकिन पर्यावरणीय चिंताओं के कारण बहस छिड़ी है। जनसंख्या वृद्धि और मध्यम वर्ग की समृद्धि से इनका उपयोग बढ़ा है। फिर भी, इनकी जड़ें प्राचीन चीन में हैं, और भारत तक की यात्रा सांस्कृतिक आदान-प्रदान की मिसाल है।

यह कहानी बताती है कि पटाखे न केवल धमाके हैं, बल्कि इतिहास की एक जीवंत कड़ी हैं, जो दुनिया को जोड़ती है।

भारत में दिवाली पर पटाखों की भव्य आतिशबाजी

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