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योग

योग (Yoga) – मार्ग शांति का

Yoga – The Path of Peace

यदि आसान शब्दों में कहा जाए तो योग एक मात्र ऐसा रास्ता है, जो किसी भी इंसान को शांति और सन्मार्ग की ओर ले जाता है। योग, एक ऐसी क्रिया है, जिसमे मन, आत्मा और शरीर में तालमेल बनाने का और भावनाओं को दृढ़ बनाने का कार्य किया जाता है।

विशेष रूप से योग एक आध्यात्मिक आत्मसंयम है, जो जीवनचर्या का पूर्ण सारांश आत्मसात करता है और मन तथा शरीर को अनुशासित कर व्हवहार शांत तथा सामान्य करने में सहायक है।

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योग एक विज्ञान भी है यह बुद्धि, मन और शरीर के बीच एकात्मकता लाता है। योग एक कुशल जीवन-यापन की कृति, कला एवं विज्ञान है। योग हमारी भारतीय संस्कृति में अत्यधिक किया जाता है।

योग के प्रकार (Types of Yoga)

योग के मुख्यतः चार प्रकार होते है – राज योग, कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग।

राजयोग या अष्टांग योग (Rajyoga or Ashtanga Yoga)

राजयोग को अष्टांग योग के नाम से भी जाना जाता है। इस योग के आरम्भ में ही मन और शरीर में हो रही व्याकुलता पर ध्यान कर निरीक्षण करने का प्रयास करें। मन, बुद्धि, शरीर और आस-पास जो कुछ भी हो रहा है उस पर गौर करें। अपने विचारों की गतिविधियों तथा मनोवृत्ति पर भीं शांतिपूर्वक सोच-विचार करने का प्रयास करें। इस ध्यान को करने की कोशिश करने मात्र से ही चित्त शांत होगा तथा आपके सोचने समझने की शक्ति भी अनुकूल हो जाएगी।

राज योग के आठ अंग होते है – यम (शपथ), नियम (आचरण-अनुशासन), आसन (मुद्राएं), प्राणायाम (श्वास नियंत्रण), प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण), धारण (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि (परमानंद या अंतिम मुक्ति)।

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योग के अंतर्गत महर्षि पतंजलि ने अष्टांग या राजयोग का वर्णन इस प्रकार किया है – यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः।

1. यम (शपथ)

यम निवृत्ति प्रधान हैं। महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में यम के पांच अंगों का उल्लेख किया है। ये अंग इस प्रकार है –

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरग्रहाः यमा।।

  • अहिंसा : अहिंसा का अर्थ है ‘दंड न देना’ या ‘न ही मारना’ अर्थात किसी को भी शारीरिक या मानसिक रूप से पीड़ा न पहुँचाना। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी मनुष्य या जीव-जंतु को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से किसी प्रकार की कोई हानि नहीं पहुँचनी चाहिए। मन में किसी का अहित करने की न सोचें, कटु वाणी आदि से भी किसी का अहित न करें। किसी भी जीव को, किसी भी परिस्थिति में, यहाँ तक कि कर्म से भी न मारना अहिंसा है।
  • सत्य : सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है सते हितम् यानि सभी का कल्याण। इस कल्याण की भावना को हृदय में धारण करने बाद ही व्यक्ति सत्य बोल सकता है। एक सच्चे व्यक्ति की पहचान यह होती है कि वह वर्तमान भविष्य के बारें में सोचें बिना ही अपनी बात पर दृढ़ रहता है। एक सच्चे व्यक्ति मानव स्वभाव में सत्य के प्रति तीव्र श्रद्धा और झूठ के प्रति घृणा की भावना होती है।
    सत्य इस दुनिया की बहुत महान शक्ति है। सत्य के बारे में व्यावहारिक बात यह है कि सत्य विचलित हो सकता है लेकिन पराजित नहीं हो सकता है। भारत में कई सत्यवादी विभूतियाँ हुईं जिनकी दुहाई आज भी दी जाती हैं जैसे राजा हरिश्चन्द्र, सत्यवीर तेजाजी महाराज आदि। उन्होंने अपने जीवनकाल में यह संकल्प लिया था कि चाहे उनके प्राण भी चले जाए, परन्तु वह सत्य का मार्ग नहीं छोड़ेंगे।
  • अस्तेय : अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। हिन्दू धर्म और जैन धर्म में यह एक गुण माना जाता है। योग के सन्दर्भ में अस्तेय, पाँच यमों में से एक है। अस्तेय का व्यापक अर्थ है – चोरी न करना तथा मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे की सम्पत्ति को चुराने की इच्छा न करना।
  • ब्रह्मचर्य : ब्रह्मचर्य योग के मूलभूत स्तंभों में से एक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है सात्विक जीवन व्यतीत करना, शुभ विचारों से परिपूर्ण रहना, भगवान का ध्यान करना और ज्ञान प्राप्त करना। यह वैदिक धर्म वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार यह 0-25 वर्ष की आयु का होता है और जिसके बाद छात्रों को भविष्य के जीवन के लिए शिक्षा प्राप्त करनी होती है।
    ब्रह्मचर्य से असाधारण ज्ञान पाया जा सकता है वैदिक काल और वर्तमान समय के सभी ऋषियों ने इसका पालन करने को कहा है। आज से हजारों साल पहले से ही हमारे ऋषि-मुनि ब्रह्मचर्य की तपस्या करते आ रहे हैं क्योंकि इसका पालन करने से हमें इस संसार के सारे सुख प्राप्त हो सकते हैं।
  • अपरिग्रह : अपरिग्रह का अर्थ है दान का अस्वीकार, आवश्यकता से अधिक दान न लेना। इस योग में गैर-अधिकार की भावना, गैर लोभी या गैर लालच की भावना तथा स्वामित्व की भावना से मुक्ति मिलती है। यह विचार मुख्य रूप से जैन धर्म और हिन्दू धर्म के राज योग का हिस्सा है। जैन धर्म के अनुसार “अहिंसा और अपरिग्रह जीवन के आधार हैं”। अपरिग्रह का अर्थ है कोई भी वस्तु संचित ना करना भी होता है।

शान्डिल्य उपनिषद और गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम जी के द्वारा भी यम के दस प्रकारों वर्णन किया गया है –

  • अहिंसा
  • सत्य
  • अस्तेय
  • ब्रह्मचर्य
  • क्षमा : क्षमा का अर्थ है अपराध को बिना प्रतिशोध या बदले की भावना के सहन करने की प्रवृत्ति अर्थात किसी के द्वारा किये गये अपराध या गलती पर स्वेच्छा से उसके प्रति भेदभाव और क्रोध को समाप्त कर देना।
    कहने का भाव यह है कि मन की वह भावना या मनोवृत्ति जिससे कोई व्यक्ति दूसरे के कारण हुए कष्टों को चुपचाप सह लेता है, और परेशानी पैदा करने वाले के प्रति मन में कोई विकार नहीं आने देता।
  • धृति : धृति का शाब्दिक अर्थ है – मन की दृढ़ता, धैर्य, सहनशक्ति, धीरज। योग के सभी ग्रंथों में धृति को प्रमुख यमों में से एक माना गया है। धर्म के दस लक्षणों में मनु ने धृति को भी स्थान दिया है।
  • दया : हिंदी में दया शब्द का प्रयोग बहुत ही व्यापक रूप से होता है। इसका अर्थ हमदर्दी, तरस, करुणा, दूसरों की विपत्ति का दुख आदि। कई विद्वानो ने दया के बारें में अलग अलग परिभाषाएं दी है, तुलसीदास जी का कहना है कि दया ही वास्तविक धर्म है। जब तक ह्रदय मे दया है, तभी तक धर्म भी है, दया के आभाव में धर्म का कोई अस्तित्व नही है।
  • आर्जव : आर्जव दस यमों में से एक है। प्राचीन हिन्दू तथा जैन ग्रन्थों में इसका वर्णन मिलता है। इसका शाब्दिक अर्थ खरापन, स्पष्टता, सदाचार, सभ्यता, इमानदारी, सादापन, साधुता, सत्यता, शुद्धता, सरलता, नैतिकता, शिष्टाचार आदि।
  • मिताहार : मिताहार का अर्थ है मित + आहार अर्थात, कम खाना। यह भोजन की मात्रा से सम्बन्धित योग की एक अवधारणा है। मिताहार यम के दस प्रकारों में से एक है। शाण्डिल्य उपनिषद, गीता, दशकुमारचरित और हठयोग प्रदीपिका आदि जैसे 30 से अधिक ग्रंथों में मिताहार की चर्चा की गई है। जैसे कि –
    ब्रह्मचारी मिताहारी त्यागी योगपरायणः ।
    अब्दादूर्ध्वं भवेद्सिद्धो नात्र कार्या विछारणा ॥
  • अपमलन (शौच) : अपमलन का अर्थ है गुदा या मलद्वार से मल त्याग करना। यह पाचन क्रिया की अन्तिम प्रक्रिया है। मानव द्वारा अपमलन की आवृत्ति 24 घण्टे में दो-तीन बार से लेकर एक सप्ताह में दो-चार बार तक होती है। संकुचन की क्रिया आँतों की पेशियों में होती है, जिससे मल-मूत्र गुदा की ओर गति करता है।

2. नियम (आचरण-अनुशासन)

योग के संदर्भ में स्वस्थ जीवन, आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक आदतों और क्रियाओं या गतिविधियों को नियम कहा जाता है।

महर्षि पतंजलि जी के द्वारा योगसूत्र में उल्लिखित पांच नियम इस प्रकार है –

शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा: ।।

  • शौच : शारीरिक और मानसिक शुद्धि को शौच कहा जाता है, षट्कर्म से शरीर की आंतरिक शुद्धि संभव है, ध्यान से ब्रह्म, मन, बुद्धि और स्वयं की शुद्धि भी संभव है।
  • संतोष : संतुष्ट और प्रसन्न रहना
  • तप (तपस) : स्वयं से अनुशाषित रहना
  • स्वाध्याय : आत्मचिंतन करना
  • ईश्वर-प्रणिधान : ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए

हठयोग प्रदीपिका में उल्लिखित नियम के दस सिद्धांत इस प्रकार है –

  • तपस
  • सन्तोष
  • आस्तिक्य
  • दान
  • ईश्वरपूजन
  • सिद्धान्तवाक्यश्रवण
  • हृ
  • मति
  • जाप
  • हुत

3. आसन (मुद्राएं)

आसन का शाब्दिक अर्थ है – संस्कृत शब्दकोष के अनुसार आसनम् , बैठना, बैठने का आधार, बैठने की विशेष प्रक्रिया, बैठ जाना आदि। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा ध्यान समाधि में इस क्रिया का स्थान तृतीय है, जबकि गोरक्षनाथादि द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग (छः अंगों वाला योग) में आसन का स्थान प्रथम है। मन की स्थिरता के लिए, शरीर और उसके अंगों की दृढ़ता के लिए और कायिक सुख के लिए, इस क्रिया का विधान मिलता है। आसनों की विशेषता विभिन्न ग्रंथों में दी गई है – उच्च स्वास्थ्य की प्राप्ति, शरीर के अंगों की दृढ़ता, प्राणायामादि उत्तरवर्ती साधनक्रमों में सहायता, मन की स्थिरता, शारीरिक और मानसिक सुख दायी आदि।

इस योग में द्वैत का प्रभाव भी शरीर पर नहीं पड़ता। महृषि पतंजलि के व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे-पद्मासन, भद्रासन आदि) किया है। इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य में मिलता है।

पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार,
स्थिरसुखमासनम्
(अर्थ : सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है। या, जो स्थिर भी हो और सुखदायक अर्थात आरामदायक भी हो, वह आसन है। )
इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि आसन वह जो आसानी से किए जा सकें तथा हमारे जीवन शैली पर विशेष लाभकारी प्रभाव डालती है।

4. प्राणायाम (श्वास नियंत्रण)

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: ।।

प्राणायाम = प्राण + आयाम । इसका शाब्दिक अर्थ है – प्राण या श्वसन को लम्बा करना या फिर जीवनी शक्ति को लम्बा करना । प्राणायाम का अर्थ कुछ हद तक श्वास को नियंत्रित करना हो सकता है | परन्तु स्वास को कम करना नहीं होता है | प्राण या श्वास के आयाम या विस्तार को प्राणायाम कहा जाता है।

योग की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

5. प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण)

जब इंद्रियाँ विषयों को छोड़कर विपरीत दिशा में मुड़ जाती हैं, प्रत्याहार कहलाता है। अर्थात इंद्रियों की बहिर्मुखता का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है। योग के उच्च अंगों के लिए अर्थात धारणा, ध्यान तथा समाधि के लिए प्रत्याहार का होना आवश्यक है।

6. धारणा (एकाग्रता)

मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना होगा। किसी एक विषय को ध्यान में बनाए रखना होगा। अर्थात चित्त को किसी एक विचार में बांध लेने की क्रिया को धारणा कहा जाता है। यह शब्द ‘धृ’ धातु से बना है। पतंजलि के अष्टांग योग का यह छठा अंग या चरण है। वूलफ मेसिंग नाम के व्यक्ति ने धारणा के सम्बन्ध में अनेक प्रयोग किए।

7. ध्यान अथवा मेडिटेशन (Meditation)

ध्यान या अवधान चेतन मन की एक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी चेतना बाह्य जगत् के किसी चुने हुए दायरे अथवा स्थलविशेष पर केंद्रित करता है अर्थात किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। ध्यान द्वारा हम चुने हुए विषय की स्पष्टता एवं तद्रूपता सहित मानसिक धरातल पर लाते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रवेश नहीं करती।

8. समाधि (परमानंद या अंतिम मुक्ति)

यह मन की वह अवस्था है, जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह मगन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है। ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में इसका महत्व बताया गया है। समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं : सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मितानुगत होती है। असंप्रज्ञाता में सात्विक, रजस और तमस की सभी प्रवृत्तियां रुक जाती हैं। यानी, जब साधक पूरी तरह से विषय के ध्यान में लीन हो जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान हो जाता है, तब उसे समाधि में कहा जाता है। पतंजलि के योग सूत्र में समाधि को आठवीं (अंतिम) अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है।

कर्मयोग (Karmayoga)

कर्म का अर्थ है “कृति, कार्य, क्रिया, कृत्य, परिश्रम या काम करना” । बिना कर्म करें कोई भी मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। कर्म करना मनुष्य की कुदरती मनोवृत्ति है। हम जो भी कुछ सोचते, कहते या करते है उसका प्रभाव पड़ता है, जिसके पश्चात सही समय आने पर हमें प्रतिफल प्राप्त होता है। हमारे वर्तमान के कर्म ही हमारा भविष्य निर्धारित करते है।

कर्म दो प्रकार के होते है – सकाम कर्म (स्वयं के लाभ के लिए कर्म) और निष्काम कर्म (स्वार्थहीनता वाले कर्म)।

1. सकाम कर्म (स्वयं के लाभ के लिए कर्म)

वह कर्म जिसके अंतर्गत हम कोई क्रिया करते हुए उसके फल की इच्छा रखते है, उसे सकाम कर्म कहते है और यह हमारे सामाजिक जीवन के लाभ से जुड़ा हुआ होता है।

यदि कोई जीव सकाम कर्म का अनुशरण करता है, तो वह माया के बंधनो में बंध जाता है, जिस कारण उसकी इच्छाएं कभी खत्म नहीं होती तथा वह मक्ति के मार्ग से विचलित हो जाता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि सकाम कर्म हर एक जीव को जीवन-मरण के बंधन में बांधकर रखता है। यही कारण है कि हम परम शक्ति या परमात्मा से जुड़ नहीं पाते और परम शक्ति के मार्ग से विचलित हो जाते है, इसीलिए सकाम कर्म को निम्न श्रेणी के कर्म के रूप मे जाना जाता है।

2. निष्काम कर्म (स्वार्थहीनता वाले कर्म)

बिना कामना या इच्छा के किया जाने वाला काम अर्थात बिना फल की चिंता किए, निर्लिप्त, नि:स्वार्थ इत्यादि। अर्थात जो व्यक्ति अपनी सारी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देते है तथा अपना कर्म करते रहते है वें निष्काम कर्मयोगी होते है।

भक्तियोग (Bhaktiyoga)

भक्ति का शाब्दिक अर्थ है – निष्ठा, लगन, प्रेम, आदर, पूजा, सत्कार, श्रद्धा, विश्वास, धार्मिकता, सत्यता, यथार्थता, सतीत्व, पुण्यशीलता। अर्थात जब आप सृष्टि में बसने वाले प्रत्येक प्राणी, जीव-जंतु, वृक्ष इत्यादि के प्रति समान प्रेम भाव रखते है और उनका संरक्षण करते है। कोई प्राणी भक्तियोग का अभ्यास कर सकता है।

भक्ति योग के तीन प्रकार है – नवधा भक्ति, रागात्मिका भक्ति, पराभक्ति।

1. नवधा भक्ति (Navadha Bhakti)

पुराणों में भक्ति के 9 प्रकारों का वर्णन किया गया है, जिसे नवधा भक्ति कहते है।

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा)

एक श्लोक के द्वारा इन 9 प्रकार की भक्तियों का उल्लेख किया गया है। यह श्लोक इस प्रकार है –

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

  • श्रवण (परीक्षित) : अपने पूरे मन से ईश्वर की भक्ति करते हुए ईश्वर की लीलाओं, उनके दिव्य गुणों, इतिहास प्राचीन ग्रन्थों, पुराणों तथा कथाओं के बारें में लगातार सुनना ही श्रवण भक्ति होती है।
  • कीर्तन (शुकदेव) : अपने आराध्य के रंग में रंग जाना, उनकी भक्ति में लीन होना, उनका गुणगान करना अर्थात भजन-कीर्तन करना ही कीर्तन भक्ति होती है।
  • स्मरण (प्रह्लाद) : परमपिता परमात्मा का स्मरण करते हुए उन्हीं में मगन हो जाना अर्थात उनकी लीलाओं तथा उनके द्वारा दी गई सीख का स्मरण करना ही स्मरण भक्ति होती है।
  • पादसेवन (लक्ष्मी) : ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था रखते हुए स्वयं को उनके चरणों में समर्पित कर देना अर्थात उन्हीं को ही अपना सब कुछ मान लेना। अपने जीवन के सभी कर्मो चाहे वे अच्छे हो या बुरे उन्हीं के साथ अपने आप को परमपिता परमात्मा के चरणों समर्पण कर देना ही पादसेवन भक्ति कहलाती है।
  • अर्चन (पृथुराजा) : कर्मों द्वारा, वचनों के द्वारा और मन के द्वारा पावन, पवित्र व शुद्ध सामग्री से अपने आराध्य की पूजा करना ही अर्चन भक्ति होती है।
  • वंदन (अक्रूर) : ईश्वर सहित आचार्य, ब्राह्मण, गुरुओं तथा अपने माता-पिता की सेवा करते हुए और अपने आराध्य की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा कर पूर्णतय श्रद्धा एवं निष्ठा से विधि पूर्वक अर्थात नियमों को मानते हुए , आंनद सहित प्रणाम करना ही वंदन भक्ति होती है।
  • दास्य (हनुमान) : ईश्वर को अपना स्वामी मानकर तथा अपने आप को उनका दास मानकर उनकी सेवा करना ही दास्य भक्ति होती है। जैसे; पवन पुत्र हनुमान जी ने अपने प्रभु श्री राम की भक्ति की।
  • सख्य (अर्जुन) : ईश्वर को अपना परम अर्थात सर्वोच्च मित्र मानकर उनसे अपने पुण्यों और अपने पापों का प्रस्तुतिकरण करना या स्वीकार करना और अपने आपको ईश्वर के प्रति समर्पण कर देना ही सख्य भक्ति होती है।
  • आत्मनिवेदन (बलि राजा) : स्वयं का हमेशा के लिए ईश्वर के चरणों में समर्पण करना और किसी प्रकार का कोई स्वतंत्र अस्तित्व न होना, इसी अवस्था को आत्मनिवेदन या आत्मनिरीक्षण भक्ति कहते है। इस भक्ति को सबसे उत्तम या प्रकृष्ट अवस्था कहा जाता है।

2. रागात्मिका भक्ति

जब नवधा भक्ति अपने चरमोत्कर्ष को पार करती है और हृदय में एक अलौकिक दिव्य प्रेम उत्पन्न होने लगता है, तब रागात्मिका भक्ति एक सहानुभूतिपूर्ण अवस्था के रूप में उत्पन्न होने लगती है। इस अवस्था में भक्त को अपने ईश्वर के ओजस्वी होने का आभास होता है।

3. पराभक्ति

जब रागात्मिका भक्ति अपनी अंतिम अवस्था पर आती है, तब भक्त अपनी सर्वोच्च और अंतिम परिणति पर आ जाता है। इस अवस्था में आने के पश्चात कोई द्विवचन या द्वैत नहीं रहता तथा भक्त और भगवान एक हो जाते है अर्थात भक्त को एकमात्र ब्रहम का बोध होता है।

ज्ञानयोग (Gyanyoga)

ज्ञान का अर्थ है जानना, बोध, अनुभव, समझना, चैतन्य, संज्ञान, विद्या, परिचय, ज्ञप्ति, समझ, बूझ, धारणा। अपना निजी व्यक्तित्व जानना अर्थात खुद से परिचित होना। अपनी आत्मा और चेतना तथा अपने भौतिक अस्तित्व यानि अपने शरीर की प्रकृति को जान लेना और अपनी आत्मा तक पहुंचने की कोशिश करना। जबतक हम अपनी आत्मा को नहीं समझ नहीं पायंगे तब तक अपने शरीर को भी नहीं जान पायंगे।

ज्ञान योग के चार मुख्य सिद्धांत है जो इस प्रकार है – गुण और दोष के बीच अंतर करना (विवेक), संन्यास, आत्म-बलिदान अर्थात वैराग्य (स्थिरता), छ: कोष (षट संपत्ति), अपने आराध्य को पाने के लिए लगातार प्रयास करना (मुमुक्षत्व)

  1. गुण और दोष के बीच अंतर करना (विवेक) : विवेक ज्ञान का वह रूप है, जो हमें सही मार्ग चुनने में सहायता करता है इसलिए विवेक को हमारी चेतना का सर्वोच्च और महत्वपूर्ण संघ माना गया है क्योंकि हमें हमारी चेतना से ही पता चलता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित।
  2. संन्यास, आत्म-बलिदान अर्थात वैराग्य (स्थिरता) : वैराग्य का अर्थ है – हर प्रकार के सांसारिक सुखों या संपत्ति की इच्छा को त्यागकर आन्तरिक रूप से स्वयं को मुक्त करना। सभी प्रकार के सांसारिक सुख अयथार्थ या असत्य हैं इसलिए ये व्यर्थ हैं अर्थात मूल्यहीन है।
    ज्ञान योग में भक्त शाश्वत, सर्वोच्च, अपरिवर्तनीय, ईश्वर की तलाश करता है। इस सांसार में सभी वस्तुएँ अनवस्थित हैं इसलिए असत्य का एक रूप है। परन्तु दिव्य आत्मा, जो अविनाशी, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है, वही वास्तविकता है। आत्मा आकाश के सामान है क्योंकि आकाश सदा आकाश है और कोई इसका कुछ नहीं कर सकता।
  3. छ: कोष (षट संपत्ति) : ज्ञान योग में इस सिद्धांत के 6 अंग है –
    1. इंद्रियों और मन पर निग्रह करना (शम)।
    2. इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण (दम)।
    3. दृढ़ होना, अनुशासित होना। हर मुश्किल में धैर्य रखना और उनका मुकाबला करना (तितिक्षा)।
    4. पवित्र शास्त्रों, पुस्तकों और गुरु के वचनों में विश्वास रखना (आस्था)।
    5. निर्धारण और उद्देश्य होना। हमारी अपेक्षाएं हमारे लक्ष्य की ओर होनी चाहिए, चाहे कुछ भी हो जाए। आपके लक्ष्य से आपको कोई पृथक करने वाला न हो (समाधान)।
    6. उपरोक्त बातों से ऊपर उठना (उपरति)।
  4. अपने आराध्य को पाने के लिए लगातार प्रयास करना (मुमुक्षत्व) : जब हृदय में ईश्वर के होने की अनुभूति हो और ईश्वर में विलीन होने की प्रबल इच्छा जागृत हो जाए। पूर्णतय आत्म-साक्षात्कार हो जाए।
    आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है कि हम ईश्वर से अलग नहीं हैं, बल्कि ईश्वर और जीवन एक ही हैं। जब व्यक्ति को यह बोध हो जाता है, तब उसकी बुद्धि के द्वार खुल जाते हैं तथा तब उसे अपने वास्तविक अस्तित्व की प्राप्ति हो जाती है।
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