Maharishi Swami Dayanand Saraswati
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी आधुनिक भारत के महान विचारक, समाज का चिंतन-मनन करने वाले, आर्य-समाज के संस्थापक थे, उन्होनें वेदों को हमेशा सर्वप्रधान माना। वेदों के प्रचार के लिए उन्होंने मुंबई में आर्यसमाज का अधिष्ठान किया। वें एक महान चिंतक और सन्यासी थे। उनके द्वारा कहा गया एक प्रमुख वाक्य था “वेदों की ओर लौटो” ।
जीवन
दयानन्द सरस्वती जी का जन्म फ़रवरी के महीने में टंकारा में सन् 1824 में मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था। उनकी माता का नाम यशोदाबाई (Yashodabai) था और उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक धनी, संपन्न और प्रबल व्यक्ति थे। दयानन्द सरस्वती जी का वास्तविक नाम मूलशंकर था। इनका जीवन शुरू में बहुत ही ऐशो-आराम का रहा। फिर वे पंडित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करने में जुट गए।
वैसे तो उनके जीवन में अनेक घटनाएं हुई परन्तु एक घटना ने उनके मन में हिन्दू धर्म की परम्परागत रूप से मानी जाने वाली मान्यताओं और भगवान को लेकर अनेकों सवाल जागृत कर दिए। किशोरावस्था की आयु में शिवरात्रि के त्यौहार या अवसर वाले दिन दयानन्द सरस्वती जी अपने परिवार के साथ जागरण के लिए मंदिर में रुक गए। जागरण के दौरान उनका पूरा परिवार सो गया पर वे जागते रहें, उन्हें लगा कि भगवान शिव आयेगें और भोग लगा हुआ प्रसाद खायेंगें। परन्तु उसी समय उनका ध्यान प्रसाद खाने वाले चूहों पर गया। यह देखकर वे अचम्भित रह गए और विचार करने लगे कि जो भगवान अपने प्रसाद की देखरेख नहीं कर सकता वह व्यक्तित्व या मनुष्यता का बचाव क्या करेगा ? इस तथ्य को लेकर उन्होंने अपने पिता से तर्क-वितर्क किया तथा अपनी बात कही कि हमको ऐसे विवश भगवान की पूजा-आराधना नहीं करनी चाहिए।
कुछ समय पश्चात उनके चाचा और उनकी छोटी बहन की हैजा नामक बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। उनकी इस तरह मृत्यु देख वे जीवन-मरण के बारें में अत्यंत गंभीरता से सोच-विचार करने लगे और इन्हीं से जुड़े सवाल-जवाब करने लगें। उन्हें इस प्रकार देख उनके माता-पिता बहुत चिंतित रहने लगें। दयानन्द सरस्वती जी का व्हवहार ऐसा ही रहने लगा। तब उनके माता-पिता ने यौवनारम्भ में ही उनकी शादी करने का फैसला किया, उन दिनों यह एक आम बात थी। परन्तु दयानन्द सरस्वती जी ने निर्णय किया कि उनके जीवन में विवाह के लिए कोई जगह नहीं है तथा उन्होंने 1846 में सत्य की खोज में घर का परित्याग कर दिया।
अनुसंधान
साल 1895 के फाल्गुन माह के शिवरात्रि वाले दिन बालक मूलशंकर के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आया जिसके कारण उनका नाम इतिहास के पन्नों में लिखा गया। उस दिन उनमे एक नई भावना की उत्पत्ति हुई और वे घर से निकल पड़े। यात्रा में उन्हें अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा तथा यात्रा के दौरान वे गुरु विरजानन्द के पास आए। वहां उन्होंने वेद-वेदांग, पातंजल-योगसूत्र और पाणिनी व्याकरण का पठन-पाठन किया।
गुरु विरजानन्द ने अपनी-दक्षिणा में दयानन्द सरस्वती जी को कहा कि इस ज्ञान को ओर उजागर कर विजयी करना, सदैव मानव परहितेच्छा को तटस्थ रखना, सत्य आचरण विद्याओं का उत्थापन करना, मनुष्यों में ज्ञान का विस्तार करना। अज्ञान को खत्म कर वेदों का प्रचार करना तथा वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करना। उन्होंने कहा कि यदि तुम ऐसा करते हो तो यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा होगी।
उन्होनें दयानन्द सरस्वती जी को आशीर्वाद दिया और कहा कि भगवान तुम्हारे पुरुषार्थ को विजयी बनाए। उन्होनें अंत में उनसे यह कहा कि मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना।
अनुयोजन
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात उन्होंने अनेक धार्मिक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ (Flag of Hypocrisy) को पर विचार किया तथा उन्होंने प्राचीन भारत की व्यर्थ प्रथाओं का विरोध या शास्त्रार्थ किया। फिर वे कलकत्ता में रहने वाले बाबू केशवचन्द्र सेन (Babu Keshavchandra Sen) तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर (Devendra Nath Thakur) के संपर्क में आए और यहां उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा हिन्दी में बोलना व लिखना प्रारंभ कर दिया।
1932 में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने मुम्बई के गिरगांव में आर्यसमाज की स्थापना की। उनका कहना था कि आर्यसमाज के सिद्धांत और आधार प्राणिमात्र के कल्याण हेतु है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
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